जनता अदालत से आत्मसमर्पण तक: क्यों झुक रहे हैं माओवादी नेता अपने ही हथियारों के सामने?
By Jansamachar TV Desk | Updated: 27 October 2025
कभी छोटी-छोटी बातों पर जनता अदालत लगाकर “फरमान” सुनाने वाले माओवादी नेता आज वही शासन के सामने हथियार डाल रहे हैं। सवाल उठता है — क्या यह आत्मसमर्पण किसी आत्मचिंतन का परिणाम है या फिर गोलियों के डर से लिया गया मजबूर फैसला?
जनता अदालत का दौर – जब जनता थी कठघरे में
माओवादी अपने इलाकों में जनता अदालतें लगाकर लोगों को सज़ा देते थे।
किसी को “पुलिस मुखबिर” बताकर गोली मार देना, किसी को “सरकारी आदमी” कहकर लटकाना – यह सब उनके “जनता के न्याय” का हिस्सा था।
पर आज वही नेता, जिनकी अदालतों से मौत के फरमान निकलते थे, सरकार के सामने नतमस्तक हैं।
‘क्रांति’ से ‘समर्पण’ तक का सफर
माओवादियों का दावा था कि वे सामाजिक न्याय और क्रांति के लिए लड़ रहे हैं।
लेकिन अब वे जिन हथियारों से हत्या करते थे, उन्हीं को वे शांति के प्रतीक के रूप में सौंप रहे हैं।
क्या यह डर की वजह से है, या सरकारी योजनाओं में लाभ पाने की चाह?
यह सवाल अब भी जनता के मन में गूंज रहा है।
जनता से कभी पूछा?
आत्मसमर्पण से पहले क्या किसी माओवादी नेता ने उन आदिवासियों से माफी मांगी जिनके परिवार उजड़े?
क्या किसी “कॉमरेड” ने जनता अदालत लगाकर यह पूछा —
> “क्या मैं अब आत्मसमर्पण कर सकता हूँ?”
शायद नहीं। क्योंकि “जनता” उनके लिए हमेशा ढाल थी, मकसद नहीं।
सरकार की नीति और बदलता भारत :
सरकार की पुनर्वास योजना के तहत माओवादी आत्मसमर्पण कर रहे हैं।
यह दिखाता है कि अब बंदूक नहीं, विकास की राह ही स्थायी शांति की कुंजी है।
सरकार के लिए यह कानून व्यवस्था की जीत है, और जनता के लिए — भय से मुक्ति का उत्सव।
निष्कर्ष
इतिहास गवाह रहेगा कि जो कभी “जनता अदालत” चलाते थे, वे आज “सरकारी अदालत” में सर झुका रहे हैं।
लेकिन असली न्याय तब होगा, जब जनता का विश्वास लौटेगा और आदिवासी इलाकों में शांति स्थायी होगी।
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